अपनों के रूप में वैरी (अभिषेक शर्मा)
अपनों के रूप में वैरी।
जलने लगते हैं अपने ही।
उनसे आगे न बढ़ पाए हम,
देखते रहते है सपने ही।।
शायद ये लगता उनको,
हम उनसे बेहतर कर सकते।
उन्हें कहीं दूर छोड़ पीछे ही,
अपना नाम ऊंचा कर सकते।।
ले जाती ये ईर्ष्या उनको,
देखो किस मुकाम पर।
नीचा दिखाने को हमको फिर,
तड़पे वो भी देखो पल हर।।
कभी तो ये भाव बने भयंकर,
जान हमारी वे जाने मामूली।
वाण वचनों के कटाक्ष चलाते,
हमें जान देना भी लगे जरूरी।।
बस उनका तो रस्ता साफ हो,
जाता ना कुछ अपना प्यारा।
दुख तो उनको होता इसका,
जिन्होंने घर का सदस्य गंवाया।।
राजनीति चले हर क्षेत्र में,
चाहे करे किसी भी काम को।
बड़े बड़ों से जुड़ा संपर्क,
जो चाहे न दूजा इनसा हो।।
ख्याति मिले बस इन्हे ही सब,
चाहे जीवन पूरा निकल भी जाए।
इनके रस्ते गर आए नया कोई,
उसको रस्ते से निकाला जाए।।
धारणा ऐसी रखती है कि,
देखा न इन्हे किसी ने भी।
हम सब का हिसाब जो रखता कोई,
वो भाग्य का निर्णय करता भी।।
कुछ बाते बताई जो भी यहां,
घटा जिन्दगी में तेरी मेरी है।
हर कहीं तुम ये देख हो सकते,
कुछ अपनों के रूप में वैरी है।।
रचनाकार- अभिषेक शर्मा✍🏼

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